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निबन्ध

परिश्रम सफलता के कुंजी है

परिश्रम करने वाले व्यक्ति ही आखिर में सफल होता है | बिना परिश्रम के हम कुछ भी हासिल नहीं कर सकते | अगर वह चोटी सी कार्य या चीज़ है तब उसे पाने के लिए हमे परिश्रम करना चाहिए | अगर हम अपने पडाई में अच्छा अंक लाना चाहते है या अपने कक्षा पहला आना चाहता उसकके लिए भी हमें कडी परिश्रम करना चाहिए |हम अपने ज़िंदगी में बिना परिश्रम के, कुछ भी हासिल नही कर सकते | परिश्रम करना, मतलब वह एक लंबी रास्ता है | उसके लिए हम जहाँ भी जाके ढूंढे हमे कोई भी चोटा रास्ता नहीं मिलेगा | इस्क्के मतलब यह है की हम किस काम या कार्य के लिए परिश्रम कर रहे है उसका हात्त यूंही नही मिलता |उसे सफल होने समय लगता है | यानी जो व्यक्ति परिश्रम करता है उसे उस परिश्रम के अंत नक शांत होना या अपने मन को क्षमता रखना चाहिए | अगर अपने को कोई क्षमना नहीं  रख  पाए तो वह शायद उसके परिश्रम को आधी रास्ते में चोड के जा सकता है |उसे सफल होने समय लगता है | यानी जो व्यक्ति परिश्रम करता है उसे उस परिश्रम के अंत नक शांत होना या अपने मन को क्षमता रखना चाहिए | अगर अपने को कोई क्षमना नहीं  रख  पाए तो वह शायद उसके परिश्रम को आधी रास्ते में चोड के जा सकता है |तो उसके लिए हमें सबर रहना ज़रूरी है | और यह सारे कठिन परिश्रम से अगर कोई भी अपने मंज़िल तक पहुँच गया, थो वह इंसान को बहुत खुश और मन को भी अच्छा लगेगा | और जो व्यक्ति कठिन परिश्रम के साथसफल हुआ, वह समच सकता है | और वह इंसान आने वाले कल को भी इसके महत्व के बारे में बता सकता | इसलिए लोग कहते है कि "परिश्रम सफलता की कुंजी है "|

खामोशी

एक बार की बात है | एक गाँव में कृष्णदेव राय नामक न्याय प्रिय राजा राज करते थे | उनके सामने एक चोरी की समस्या लेकर एक सत्री आई | जिसमें खोज़ और तहकीकात करने पर यह पता चला की वह सत्री कोइ अन्य नहीं बल्कि वही सत्री हैं जिसे उसकी ईमानदारी के लिए महाराज द्वारा पुरस्कार दिए गया था | जिससे पूरी सभा को यह विशवास हो गया था की, यह सत्रीझूठ नहीं बोल रही और सभी ने इसका सात दिया |

उन सबका साथ , किन्त्तु कब टक था केवल तब तक जब तक चोर को एकड़ा न गया | सबके भाव व विचार बढलने का कारण कुछ और नहीं बलिक वह चोर ही था | क्योंकि वहचोर कोई अन्य नहीं था ,वह तो महाराज का बाल्य्काल मित्र "तथाचार्य "था | सबको तो यही लगी कि इतने बड़े महाराज का मित्र भला एक चोर तो हो ही नहीं सकता इसलिए सबने उस सत्रो को ही गलत व झूठी मानकर भरी सभा में उसका अपमान किया जबकी सभी अन्तरमनसे यह जानते थे की गलत वो नहीं बल्कि महाराज का मित्र है |

सच्च से बया होकर भी किसी ने उसका साथ नहीं दिया | सबकी खामोशी ने महाराज को भी न्याय करने से पीछे खिच लिया | महाराज का मन भी बाल्य्काल मित्र को देखकर खामोश रहा और उस सत्री की ढ़ड़ दिया गया | उस सत्री की चोरी ,झूठ बोलने और बैकसूर को चोर ठहराने के कारण की मृत्यु दड़ सुनाया गया |

उसकी मौत के पश्च्चात भी महाराज कृवण देव राज का मन चंचल ही रहा और उन्हें फिर कभी वह मन की शान्ति नहीं मिल सकी | बैशक उनके मन को अपने मित्र को बचाने व साथ देनें की  प्रसननता अवश्य मिल गई | किन्त्तु उस निदौश सत्री कीहत्या के पशचाताप से वह कभी मुक्त न हो सके |

शिक्षा -------->खामोशी रखना अच्छा होता है ,किन्तु यदि यह खामोशी किसी निदौश को हानि पहूँचायं तो यह खामोशी खतरनाक हो जाती है |

कहानी का परिणाम ------->इस कहानी में भी महाराज व सभी सदस्यों की खामोशी ने उस सत्री की जान ले ली और अपनी प्रजा के मन मे महाराज के इतने समय [वर्षों]से न्याय प्रिया होने की पहचाना मिट्टी में मिल गई |

खामोशी

खामोशी शब्द सुनते ही चारो और एक शांति का माहोल हो जाता है | जैसे एक फिलम मे शत्रुगन सिन्हा ' खामोश ' बोलते है और चारो ओर के लोग शांत हो जाते है सननाटा चा चाता है  | लेकिन इस कथा में कोई चारो और सननाटा नही है बलकी एक लड़की के मन मे छाया हुआ सननाट  है | हम बातों ही बातों में किसी के भी बारे में ऐसे ही बोल  जाते है लेकिन अगर हम बैठके सोचे थो पता चलता है की उस व्यक्ति के मन में क्या हलचल मच रही  होगी| ऐसा ही कुछ अनू के साथ भी हुआ |

 अनू एक २२ साल की लड़की है | उसे पड़ने की स्कूल जाने की बहुत इच्छा होती होगी लेकिन उसे एक बीमारी का शिकार होना पड़ा | ऐसा नही है की उनके घर में पैसो की कमी है इसलिए स्कूल नहीं जा पा रही | उनके पास बहुत पैसा है | और घरवाले भी बहुत साथ देते है | लेकिन इस बिमारी में वह खुद से कुछ नही कर सकतीहर समय अपने बिस्तर पर लेटे ही रहती है | और जैसे मे मानती हूँ की सबके घर में कोई एक रिश्तेदार ऐसा ज़रूर होता है जो आपके कला कमीयबी के बारे मे नही बल्की आपके वो चीज़े अधिक उभरकर दिखाते है जिससे आपको नफरत हो | अनू बहुत अच्छा गाना गाती है | उसके मधुर शब्द से मन को सुकून प्राप्त होती है | लेकिन एक दिन एक शिश्तेदार जिसका नामसरोजनी है वो आती है | वह अनू से मिलने आई थी ओर बहुत बातचीत करने के बाद बोली की "ऐसे ही पड़े रहकर बिस्तर ना छोड़कर घर में ही रहोगी तो अपने माँ -बाप के लिए भोज बन बैठोगी | इनका यह कहना बहुत ही अधिक अनू के मन मे ठेस पहुचाया | वह कुछ नही बोली क्योंकि अगर वह बोलती तो वह रिश्तेदार उल्टा कुछ भी ज्यादा सुना देती और फिरसे अनू रो बैटती |इसलिए उसने चुप रहना ही सही माना | कुछ देर के बाद सरोजनी ने सीधे मन में लगने वाली बात कही | उसने बोला "सिर्फ खा पिके बिरुतर में पड़े रहो इसलिए तो ऐसा हाथी जैसे बड़ी हो गई हो | कोई तुमसे पहले ही शादी ना करें फिर भी अगर गाने सुनकर कोई आए तो शकल देखकर ही वो बाग जाए "| ये कुछ ज्यादा ही अनु के दिल में लगनी वाली थी |वह पहले की तरह ही शांत होकर रो पड़ी | ये रिश्तेदार हो या कोई भी होअगर वो अपने जबान में लगान ना लगाए तो दूसरे की जिंदगी ही खराब हो जाएगी | अनु पहले के जैसे ना गाना  गाती ,ना किसी से बाने करती ,ना हसती | वो अपने ही आप को नफरत करने लगी | और इसके इस अवस्या देखकर घर वाले भी परेशान हो गए | डॉक्टर को बुलाया गया लेकिन अनू की अवस्या पहले से ज्यादाखराब   हो गई | क्योंकि वह अपने को ही दोह करती थी कभी दवायी नही खाथी ,कभी हाथ मे लगी 'गलूकोस 'की बोतल कोफेंक देती ऐसे काम करती थी और इसलिए उसकी हालत खराब हो गई| एक दिन उसके माँ ते सेब काटकर दिए और किसी का फाने आया और फोन उठाने चले  गई| इसी समय अनू ने सेब काटने के लिए लाया गया चाकू को लेकर अपने हाथो की नसे काट डाली और हमेशा हमेशा के लिए इस दुख भरी जीवन से उसने अलविदा माँग लिया| माँ - बाप , घरवाले साभ टुकड़े -टुकड़े ,हो गए ओर अभ घर माँ गोना गाने वाली अपनी प्रिय पुत्री के बिना यह घर खामोशी से भरा पड़ा है | इसलिए कहते है की अगर आप कुछ अच्छा ना बोल सकते तो खामोश रहना ही बेहतर है जिससे दुसरे की मन में अपने आप से नफरत थो नहीं होगी|

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